उपन्यास >> नये समय का कोरस नये समय का कोरसरजनी गुप्ता
|
0 |
‘‘अचानक आसमान ने हल्के नीले रंग के पूरी बाँहों का परिधान पहन लिया जिसके बीचोंबीच पीले रंग की धारियों से तिलक लगा दिया हो किसी ने जैसे।’’ ऐसे माहौल में जमा हैं आधुनिक बच्चे जो जवानी की दहलीज से अब नीचे उतर रहे हैं। नेहा और उसके स्कूल, कॉलेज, पहले जॉब के साथी इसी वातावरण में इककठे हैं। अपनी ऊँचे तथा व्हाइट कॉलर जॉब से असन्तुष्ट, अपने सभी फिक्र को धुएँ में उड़ा देने का जज्बा है जिनमें। ऐसे आधुनिक जीवन की कहानी को बखूबी अपनी समानान्तर भाषा में उकेरा है रजनी गुप्त ने। कथाकार ने अनेक उपन्यास लिखे हैं जिनमें भाषा की विविधता है, यह एक सफल रचनाकार हैं।
उपन्यास में उपस्थित खुले मिजाज और बड़ी बड़ी कार्पोरेट संसार में विचरण करनेवाली खुदमुख्तार स्त्रिया अन्दर से कितनी खोखली हैं, इसका जिक्र किए बिना नहीं रहती हैं लेखिका। आज के नौनिहाल हर क्षेत्र में महारत हासिल कर रहे हैं पर उनकी ओर सीना फुलाकर देखनेवाले नही देख पाते कि उनकी दिक्कत क्या है ? विशेष रूप से लड़कियाँ। लड़कियों ने अपने को सिद्ध किया है। अब पहले वाली पीढ़ी की तरह कोई नही कह सकता कि वे कमतर हैं और न कोई यह कह सकता कि लडक़ी होने के कारण उनका प्रमोशन हो जाता है। परन्तु यह बात परिवार बनाने के लिए भारी है। पति और बच्चे का टास्क लेना वे अफोर्ड नही कर सकतीं। नव्या की मुश्किलें देखकर नेहा विवाह के विषय में सोचती तक नहीं। वह उससे कनफेस करती है—‘‘तभी तो मेरी शादी करने की हिम्मत नही होती। कितना मुश्किल है मल्टी टास्किंग होना।’’ अपने आप के लिए समय नही। टारगेट पूरे करने में समय हाथ से फिसलता जाता है। एक समय था जब ये सभी सात साथी कहते थे, अपना सपना मनी मनी, मनी हाथ में आ जाएगा तब सब कुछ पूरा हो जाएगा लेकिन अब तो आलम ये है कि जाने कितने अरसे सीता मार्केट की चाट नही खायी, साथ बैठकर जोर से ठहाके नही लगाए। नए समय का कोरस है यह जो संकेत देता है भयानक विखंडन का। आकांक्षाओं के आकाश छूने वाले थके पंछियों का।
रजनी गुप्त ने उनकी डोर तो अपने हाथों में रखी है परन्तु आकाश की निस्सीमता बेहद लुभावनी है। नवयुवाओं के लिए प्रेरक है यह उपन्यास—नए समय का कोरस। कथाकार इस कोरस को सँभाल ले जाती हैं कि एक भी सुर नही छूटता।
– पदमभूषण उषा किरण खान
|